Friday, December 30, 2011

पैरोडी तो बहुत पढ़ लिए आपने मेरी, कुछ संजीदा बातें भी कह लूं आज ज़रा सा जायका बदलने को 

मेरे ज़ख्मों को, न छेड़ ऐ मेरे यार, कहीं फिर से यह हरे न हो जाएँ /
जिनको तू कहता है शरीफ. नकाब उन चेहरोंसे कहीं उतर न जाएँ /
एक मुद्दत से ग़म को छूपाये सीने में, दिल के टुकड़े को जोड़े हैं मैंने /
ऐसा न कर हरकत कोई , ऐसा न हो यह टुकड़े फिर से बिखर जाएँ /
जिनको बिठाया था इस दिल में, लगा नहीं सकते उनपे तोहमत /
हो जाएँ रुसवा वह , उससे बेहतर है "कुंदन" कि हम ही मर जाएँ /

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