Wednesday, December 14, 2011

थोडा सा ( हंसने के बहाने ) रो लिया जाए

एक फिल्म आयी थे मेरे महबूब , उसका एक गीत "मेरे महबूब तुझे मेरी मोहब्बत की क़सम "बहुत लोकप्रिय हुआ था और उसका जादू आज तक वैसा ही छाया हुआ है / आज संसद पर हमले की दशक पूर्ति पर एक पेरोडी लिख रहा हूँ बड़े दिनों बाद बहुत ही भारी ह्रदय के साथ / आशा है आपकी प्रतिक्रिया प्राप्त होगी इस पर . //

अफज़ल प्यारे तुझे मेरी इस कुर्सी की क़सम
फिर मुझे बन्दूक और गोली का सहारा दे दे
मुझको सत्ता पे टिके रहने में सहारा दे दे , मेरे अफज़ल प्यारे ---
ऐ मेरे हमसफ़र तुम भाई से भी बढ़ कर हो मेरे
भूल जाता ज़माना सामने जो तू होता मेरे
तेरे दर्शन के बिना चैन तो मिलता ही नहीं
पानी भी मेरी हलक से तो उतरता ही नहीं
बड़ा बेचैन हूँ तू मुझको सहारा दे दे , मुझको सता पे ------
भूल सकती नहें आखें वह सुहाना मंज़र
जब तेरी गोलियां संसद से आ टकराई थी
हम तो बेफिक्र हो बैठे थे जा कर भीतर
चीख जो गूंजी थी हम को न सुनायी दी थी
वैसी चीखों से तो फिर देश का दहला रे दे , मुझको सता पे ---
कैसे खुदगर्ज़ हैं तो देख रे यह लोग तमाम
पड़े हैं तेरे पीछे और न है दूजा कोई काम
कहते हैं फाँसी चढाओ इसे हम चाहते है
तेरी अहमियत को यह मूर्ख कहाँ जानते हैं
अपनी दुआ का ज़रा मुझको सहारा दे दे , मुझको सत्ता पे ---

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