Tuesday, December 23, 2014

देश में प्रचलित लोकतांत्रिक पद्धति का मैं कभी भी समर्थन रहा नहीं- इससे मेरा कब का मोह भंग हो चुका है- पर इसके पीछे भी एक ठोस कारण है - मेरे कई घनिष्ठ बाल सखा- जिन्हे आम बोलचाल की भाषा में ' लंगोटीया यार ' कहा जाता है इस कलुषित क्षेत्र में उतर कर अपना रंग बदल चुके है- केवल एक ही मित्र खरा साबित हुआ पर उस बेचारे ने जनता की सोची इस लिए उसे उसकी पार्टी ने नकार दिया और टिकेट दिया नहीं इस बार - खैर जनतंत्र में किस तरह उल्लू बनते हैं हम उस पर एक 'पेरोडी' प्रस्तुत है आप सब के मनोरंजन और जागरूकता के लिए - मूल गीत है ' राजकुमार' फिल्म से ' तुमने किसी की जान को जाते हुए देखा है '- देखिए पढ़िए शायद आनंद आए आपको
तुमने किसी इंसान को बनते उल्लू देखा है
जनतंत्र में तो वोटर अब उल्लू ही बन रहा है (2) -----
क्या जाने होती हैं क्यों इस देश में चुनावें
देते ही रहते हैं यह हम को तो बस छलावे
शक्कर का नाम ले कर गुड भी न दे रहा है
जनतंत्र में तो वोटर अब उल्लू ही बन रहा है (2) -----
वादे हज़ारों करते पूरे कहाँ यह पर होते
धोखे पे धोखे खा कर सोए हुए हो रहते
अब जागो रे नादानो- कोई जगा रहा है
जनतंत्र में तो वोटर अब उल्लू ही बन रहा है (2) -----
गोशाले की रखवाली कैसे करे रे कसाई
सच हारती है झूठ से कैसी है यह लड़ाई
सच ही की जीत होती इतिहास कह रहा है
जनतंत्र में तो वोटर अब उल्लू ही बन रहा है (2) -----
यह देश है हमारा नहीं नेता की बपौती
फसलोंपे उनका हक़ क्यों हम करते हैं जो खेती
उठ आँसू पोंछ ले तू - तेरा देश रो रहा है
जनतंत्र में तो वोटर अब उल्लू ही बन रहा है (2) -----
करते हैं यह बहाने ग़रीबों के लिए हैं हम
हम ने तो देखा पर दौलत से चलता सिस्टम
कमज़ोरी का ही तेरी फायदा उठा रहा है
जनतंत्र में तो वोटर अब उल्लू ही बन रहा है (2) -----

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