Wednesday, December 3, 2014



हाय रे इनसान की मजबूरी

हाथपे हाथ धरके बैठो उपरसे क़िस्मतका रोना
यही बदनसीबी है मुल्क की आया कैसा ज़माना
रेतपे बनाएँ महल वही होशियार अब हैं कहलाते
इनकी समझकी तौबा खुली आंखसे सपने देखते
न सुधरा है सुधरेगा न क्या हो गया नहीं पता
साधुको अब मिले यातना बदमाशोंको मिले सत्ता
नख से शिख तक जिनमें कालिख है भरी हुई
किस तरह सफेद पोश अब वही है यहाँ कहलाता
मजमा लगाके लोगोंका नेता कोई भी बन जाए
जन्नतका दिखाके सपना जहन्नुम हमको ले जाए
बुत बन कर बैठो जो क़िस्मत कैसे बदलोगे
रीढ़ हीन जो बने रहे ऐसे ही सदा तो रोओगे

No comments:

Post a Comment