Thursday, December 25, 2014

क्या लाभ ऐसी शिक्षा का ?
"गणित का पाठ" पढ़ा ज़रूर - पर लाभ हानि के आगे गया नहीं
साहित्य की शिक्षा तो पाई ज़रूर -पर सही हित क्या जाना नहीं//1
"भूगोल के सबक" पढ़ा बचपन में पर रुपया ही गोल इतना जाना
"इतिहास के किस्से" कई पढ़ा पर औरों की इति पर हँसना जाना //2
"संस्कृत के पाठ" पढ़े गुरुजी से- पर संस्कृति से हम दूर हो गये
"विज्ञान के प्रयोग" ज़रूर थे किए - पर ज्ञान क्या है न जान पाए//3
"समाज शास्त्र" "नगर विज्ञान" समाज नगर का किया विनाश
सारी पढ़ाई कुछ भी काम न आई अब मन मे हो चला विश्वास//4
शिक्षित हो कर जो अपनी ही सोचे तो क्यों न हो इसका धिक्कार
ऐसे मनुष्य को मनुष्य कहना भाई- मनुष्यता का है तिरस्कार //5
विद्यालय- महाविद्यालय देश के क्या खाक शिक्षा कहो देते हैं
पेट में खाना भरने के लिए बस एक एक काग़ज़ ही थमा देते है //6
इस बात को समझे कौन की शिक्षा ही डालता चरित्र का नींव
सही नैतिक शिक्षाके बिना कहो भाई ऐसे बदले विंब - प्रतिविम्ब//7
कुछ दिनों से समाज और देश को ले कर काफ़ी गंभीर बातें हो गयी हैं- अब कुछ पेरोडी हो जाए दिमाग़ और दिल को हल्का करने के लिए ..
मित्रों देश में भ्रष्टाचार और भाई भतीजावाद के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए भा ज पा वालों जनता का समर्थन माँगा और जनता ने भी उन्हे अनुग्रहित कर दिया ढेर सारे सीट दे कर- परंतु दुख इस बात का है कि भा ज पा वाले इस अनुग्रह को भूल गये और जिनके खिलाफ बोल कर वोट हासिल किए थे - आए दिन उन्ही लोगों को एक एक करके अपनी पार्टी में ले रहे हैं- यह तो सरासर धोखा ही हुआ न- सो उसी पर एक पेरोडी- क्यों वोट दें हम - मूल गीत है फिल्म हाउस नंबर 44 का "तेरी दुनिया में जीने से तो बेहतर है"
क्यों वोट दें हम - धोखा खाने को ?
तेरी सरकार को चुनने से तो
तो बेहतर है कि घर पे सोएँ
वही बेईमान और धोखेबाज़
जहाँ जाएँ - जिधर जाएँ--------
कोई तो ऐसा होता नेता
निकलता वादे का पक्का
कैसा अंधेर है यह सोचो
जो वादे से यह पलट जाएँ
वही बेईमान और धोखेबाज़
जहाँ जाएँ - जिधर जाएँ--------
अरे ओ आसमाँ वाले बता
इस में बुरा क्या है-
अरे ओ आसमाँ वाले
के सब पाजी ग़लत नेता
एक ही झटके में टपक जाएँ
वही बेईमान और धोखेबाज़
जहाँ जाएँ - जिधर जाएँ--------
खेतों में फसलें तो हैं बहुत
कीड़े बन नेता खा जाएँ
कीड़े मारने की कोई दवा
कहें से हम को मिल जाएँ
वही बेईमान और धोखेबाज़
जहाँ जाएँ - जिधर जाएँ--------
मित्रों हर क्षेत्र में अपवाद तो होते ही हैं - पर मेरा अनुभव यह बताता है कि आज देश में एक ईमानदार नेता निकालना "भूसे की ढेर में सुई खोजना" जैसा ही काम है- बस इसी बात पर एक 'पेरोडी' डाल रहा हूँ- मूल गीत है फिल्म 'प्यासा' से 'जाने वह कैसे लोग थे"
जाने वह कैसे लोग थे जिनको सब पॉवर मिला
हमने तो जब नेता चुने धोखा हर बार मिला , जाने वह कैसे लोग थे----
साधु जैसा ढूँढा कोई तो बस जल्लाद मिला 
पहले फूल सा लगता जो था वह फौलाद निकला
हमरे भरोसे और यक़ीन का कैसा दिया सिला
हमने तो जब नेता चुने धोखा हर बार मिला , जाने वह कैसे लोग थे----
बिछड़ गया (2) हर नेता हम से ज्यों ही चुनाव ख़तम
कहने लगा कि खेल ख़तम और पैसा हुआ हजम
साठ साल से चलता आया अजब यह तो सिलसिला
हमने तो जब नेता चुने धोखा हर बार मिला , जाने वह कैसे लोग थे----
किस पे यक़ीन करें साथ किसका दें समझ से है यह परेे
अब तो आलम यह कि है जनता चुनाव के नाम से डरे
चुनाव के नाम पर चूना ही लगता बस यही है गिला
हमने तो जब नेता चुने धोखा हर बार मिला , जाने वह कैसे लोग थे----
बोल रे मालिक बदलेगी कब देश की यह तक़दीर
कब तक फ्रेम वही तो रहेगा बदलेगी बस तस्वीर
कर कृपा हम अधमों पर अब मुक्ति इन से तो दिला
हमने तो जब नेता चुने धोखा हर बार मिला , जाने वह कैसे लोग थे----
जैसा कि मैं पहले से कहता आया हूँ राजनीति कभी भी "हर मर्ज़ की दवा" हो नहीं सकती उसी तरह केवल राजनीति के कारण ही यह देश बर्बाद नहीं हो रहा है- इसके साथ और भी कारण है- एक तो है अव्यवहारिक शिक्षा व्यवस्था - तो उस पर एक पेरोडी क्यों न हो जाए - मूल गीत है फिल्म "जागृति" से " आओ बच्चों तुम्हे दिखाएँ"- यह प्रहार है शिक्षा के व्यापार बनाए जाने पर
आओ भाई स्कूल खोले एक - बच्चे जहाँ विद्वान बनें
उनको सर्टिफिकेट थमा कर- हम तुम भी धनवान बनें
पब्लिक स्कूल की जय-- पब्लिक स्कूल की जय-- (2)
सरकारी स्कूल में अब तो बच्चों को भाई कोई न भेजे
हर कोई चाहे उनके बच्चे अँग्रेज़ों की ही तरह सजे
उनकी इस कमज़ोरी से भाय्या अपने तो होंगे मज़े
राम जी के इसी देश में जिसे देखो रावण को ही भजे
हो न हो दाँत मुँह में- कहे हर कोई यहाँ खाने को चने
उनको सर्टिफिकेट थमा कर- हम तुम भी धनवान बनें
पब्लिक स्कूल की जय-- पब्लिक स्कूल की जय-- (2)
अपनी भाषा से देखो देश में हर किसी को अब चीढ़ है
होती जा रही है दुर्बल इस लिए हमारी तो रीढ़ है
परंपरा के मधुर फलों को लगा रहे हैं यह कीड है
ऐसी सोच से अब उजड़ती जाती परिवार की नीड है
हम को क्या लेना देना है- जिसको जो चाहे वह बने
उनको सर्टिफिकेट थमा कर- हम तुम भी धनवान बनें
पब्लिक स्कूल की जय-- पब्लिक स्कूल की जय-- (2)
विद्यालय के उद्देश्य ले कर यहाँ पढ़ता पढ़ाता कोई नहीं
खर्चा चाहे कितना हो जाए- हिसाब कोई तो रखता नहीं
सोचते हैं जब करें नौकरी सौ गुना कर क्या लौटेगा नहीं
तभी तो भाई ईमान दारों का अब अतापता मिलता नहीं
सब को प्यारा जब पैसा हो तो हम क्यो कहो साधु बने
उनको सर्टिफिकेट थमा कर- हम तुम भी धनवान बनें
पब्लिक स्कूल की जय-- पब्लिक स्कूल की जय-- (2)
आत्म चिंतन
प्रभु का ठिकाना न खोज रे बंदे - जहाँ सत् कर्म प्रभु हैं वहीं
इधर उधर न भटक रे मूरख- प्रभु तुझ में है कहीं और नहीं //
जल के भीतर कमल सा निर्लिप्त रख मन को संसार में तू 
पाप पंक का कलुष न ग्रासे हृदय रखना रे सदा निर्मल तू
जो भटका मोह माया जाल में प्रभु मिलते उसको तो नहीं
इधर उधर न भटक रे मूरख- प्रभु तुझ में है कहीं और नहीं //
ईश्वर की संतान है यह सारे - अपना पराया तेरा कौन यहाँ
मान दर्पण पर धूल जमे न - प्रभु मूरत सदा तू देख रे वहाँ
स्वर्ग की कामना करना तू मत- जहाँ मन में प्रेम स्वर्ग वहीं
इधर उधर न भटक रे मूरख- प्रभु तुझ में है कहीं और नहीं //
अपनी आदत मैं कैसे छोड़ दूँ भाई ? आज माननीय अटल जी का रोमन दिन पंजी के हिसाब से जन्म दिवस है- तो क्यों न उनके नाम पर एक कविता लिखी जाए ? ऐसा अवसर हर किसी को कहाँ मिलता है
अ----- अटल नाम को किया सही प्रमाणित
ट----- टले न कभी भी अपनी डगर से वह
ल---- लंबा सफ़र जनसेवा के व्रत का कर
ब़ि--- बिछड़ी कड़ियों को जोड़ते रहे हैं वह
हा --- हार से उनका हृदय हुआ न पराजित
री --- रीढ़ की हड्डी इस राष्ट्र के हैं तो वह
वा --- वाणी में उनकी रहा सदा ओज-जोश
ज---- जन जन में चेतना जगाते रहे हैं वह
पे ---- पेड़ यह छायादार बना रहे सदा यूँ ही
ई----- ईश्वर से करते विनती- सुनेंगे ही" वह"
मित्रो यदि आपको यह कविता पसंद आई तो निवेदन है इसे शेयर करें अपने मित्रों के साथ
पंडित मदन मोहन मालवीय जी पर भी तो एक कविता होनी चाहिए न
म----- महामना उन्हे कहते थे सारे
द----- दया और करुणा के थे भंडार
न---- नभ पर चमकता सितारा बन
मो--- मोहते हैं बाँट के अपना प्यार
ह---- हक़ और न्याय की राह चले
न---- नहीं झुके रे अन्याय के आगे
मा--- मान ही कहते असली पूंजी है
ल---- लगन बताए सफलता की कूंजी
वी---- वीर का क्षमा ही भूषण तो है
य----- यही गये हमें तो वही समझाए
मित्रों दुआ से बढ़कर कुछ भी नहीं है जीवन में- जीवन में मैने बहुत सारी संकट का सामना किया ज़रूर है- पर मित्रों की दुआ ही सदा ढाल बन कर आई है मेरी रक्षा के लिए -अभी हाल ही में मेरी पत्नी के शरीर पर शल्य क्रिया की गयी- डॉक्टर ने बताया था मामला बड़ा पेचीदा है- पर आप सब मित्रों की दुआ ही काम आए मेरे..
दुआ का माहात्म्य पर एक कविता- अगर आप स्वीकार करें तो आपका कल्याण होगा
दुआ मिले न बाज़ार में 
दुआ न तो हाट बिकाए 
दुआ अनमोल चीज़ है
जो संकट में काम आए//1
दुआ कमा लो जीवनमें
इसे चोर न कभी चुराए
दुआ न तो आगमे जले
दुआ को न जल डूबाए//2
दुआपे न कोई कर लगे
रात दिन ही बढ़ता जाए
जिसने कमाया हो दुआ
कुछ और क्यों कमाए//3
जीवन है बहुत ही छोटी
और नेक काम है बाकी
नेकी तू करता जा बंदे
नेकी ही दुआ तो दिलाए//4
हमने अपने मनकी कही
हित जिस में सबका होय
चाहो तो अपनाओ इसे
जो दिल में बात समाए //5
'कुंदन' को नहीं आस कोई
कहे मंगल सब का होय
जाएँगे सब तो छोड़ यहाँ
ले कर कहाँ कुछ आए //6

Wednesday, December 24, 2014

आत्म चिंतन
प्रभु का ठिकाना न खोज रे बंदे - जहाँ सत् कर्म प्रभु हैं वहीं
इधर उधर न भटक रे मूरख- प्रभु तुझ में है कहीं और नहीं //
जल के भीतर कमल सा निर्लिप्त रख मन को संसार में तू 
पाप पंक का कलुष न ग्रासे हृदय रखना रे सदा निर्मल तू
जो भटका मोह माया जाल में प्रभु मिलते उसको तो नहीं
इधर उधर न भटक रे मूरख- प्रभु तुझ में है कहीं और नहीं //
ईश्वर की संतान है यह सारे - अपना पराया तेरा कौन यहाँ
मान दर्पण पर धूल जमे न - प्रभु मूरत सदा तू देख रे वहाँ
स्वर्ग की कामना करना तू मत- जहाँ मन में प्रेम स्वर्ग वहीं
इधर उधर न भटक रे मूरख- प्रभु तुझ में है कहीं और नहीं //

Tuesday, December 23, 2014

चाहे आप उसे निर्भया कहें या दामिनी उसकी यादें आज बहुतों ने ताज़ी की है- पर इस देश में ऐसी भी कई बहनें और बेटियाँ हैं जो मरने से भी बदतर ज़िंदगी जी रही हैं तेज़ाब की शिकार हो कर- उनके दर्द की टीस अपने दिल में महसूस कर एक कविता लिख रहा हूँ- आशा करता हूँ आप में अगर उनके प्रति संवेदना और सहानुभूति होगी आप इस कविता को फैलाने की कोशिश करेंगे
अव्यक्त वेदना
रोज़ रोज़ की छेड़खानी से तंग बहुत मैं तो आ गयी/
किससे कहूँ- कैसे कहूँ - राह न सूझी मुझको कोई //
मेरी इस चुप्पी को देख- उसकी हिम्मत बढ़ती गयी/
और हुआ यूँ एक शाम- तेज़ाब की चपेट में आ गयी //
जल गया चेहरा मेरा - नस नस में आग सी लग गयी/
दर्द से मैं तड़पती रही - मीडिया की बाँछें खिल गयी//
आए कई अख़बार वाले तस्वीरें ढेर सारईखींच गयी/
एस एम एस आते रहे चेनल वालों की कमाई हो गयी//
ले कर हाथोंमें मोम बत्ती जुलुस शहर में निकल गयी/
मानो शहर में मेरे फॅशन शो ज्यों हो रही हो रे कोई //
जिसने मुज़ेः जलाया था- अब मूँछें उसकी है तनी हुई/
बड़े बाप का बेटा था वह - आरोप सिद्ध न भाई हो पाई //
अपने बिस्तर पर लेटी निढाल क़िस्मत पे मैं रो रही/
आँसू न थमे नयनों से - कोई हाथ पोंछने वाला नहीं //
घर फूँक कर देखें तमाशा - ऐसे लोगों की कमी नहीं /
आशियाँ किसका जला - किसकी महफ़िल सज गयी//
2010 में मैं फ़ेसबुक में शामिल हुआ - मतलब करीब 5 साल हुए - कई मित्र बने और कई छूटे भी- जो चूप चाप बैठे रहे मैने उनसे नाता तोड़ लिया और कुछ उन्होने तोड़ा जिन्हे मेरी बातें पसंद नहीं आई. जो फ़ेसबुक पर होते हुए भी उसका सदुपयोग नहीं कर पाते हैं उन पर एक पेरोडी- मूल गीत है "दुनिया वालों से दूर जलनेवालों से दूर " ध्यान दीजिए
बोलनेवालों से दूर- हँसने वालों से दूर
आजा आजा चलें कहीं दूर कहीं दूर कहीं दूर-----
ले चल ए दिल मुझे तू - ऐसी किसी जगह पर
कोई न सर को खाए - बोले न मुझसे हंसकर
यह तो बता हँसूँ क्यों - बातें किसी से हो क्यों
खुद ही में ठीक हूँ मैं - झाँकू किसी के घर क्यों
बोलनेवालों से दूर- हँसने वालों से दूर
आजा आजा चलें कहीं दूर कहीं दूर कहीं दूर-----
आया था मैं अकेला - जाऊँगा भी तो अकेला
किससे बढ़ा के रिश्ते - क्यों मोल लूँ झमेला
मतलबकी है यह दुनिया बेदर्द है यह दुनिया
जिसने किया भरोसा - लूटे उसीको यह दुनिया
बोलनेवालों से दूर- हँसने वालों से दूर
आजा आजा चलें कहीं दूर कहीं दूर कहीं दूर-----
तो भैया जिसकी सोच ऐसी हो उसे तो स्वयं भगवान भी बदल नहीं सकते- हम किस खेत की मूली हैं भला
देश में राजनीतिक परिदृश्य की चिंताजनक स्थिति पर बहुत बातें होती रहती है और नेता भी कहते हैं अच्छे और योग्य नौजवानों को राजनीति में आना चाहिए - पर यहाँ राजनीति में आने के लिए 2 योग्यता आवश्यक है- एक तगड़ा माल हो खर्चा करने के लिए ताकि उसका कई गुना वापस कमाया जा सके और दूसरा कोई प्रतिष्ठित नेता का रिश्तेदार हों आप - अपने प्रारंभिक यौवन में हम में भी बड़ा जोश था पर जो हुआ हमारे साथ उसी आपबीती पर प्रस्तुत है यह पेरोडी- मूल गीत है फिल्म 'गुनाहों का देवता' से ' चाहा था बनूँ प्यार की राहों का देवता" देखिए कैसा लगता है आपको
चाहा था बनूँ देश का एक अच्छा सा नेता
पर क्या करूँ तक़दीर ने ही दे दिया धोखा -----
जो हाल देखा देश का तो रोने लगा दिल
कर गुजरूंगा मैं भी कुछ यही ठान लिया दिल
पर दिल की कोई पूछ न मैं जानता न था
दौलत हो जिसके साथ बस एक वही चोखा
पर क्या करूँ तक़दीर ने ही दे दिया धोखा -----
नेताओं से मैं जा मिला पर बात न बनी
बातें बनाई सबने मीठी जैसे की हो चीनी
बोले सभी कि देते रहेंगे तुमको बढ़ावा
पर हुआ न कुछ भी मैं न था नेता का बेटा
पर क्या करूँ तक़दीर ने ही दे दिया धोखा -----
सेवा के नाम ले के होती है तो तिज़ारतें
ईमान क्या उसूल क्या सब कहने की बातें
हाथी के दाँत खाने दिखाने के हैं जुदा
नेता न बन सकूँगा यह अब चल गया पता
पर क्या करूँ तक़दीर ने ही दे दिया धोखा -----
देश में हर कोई किसी न किसी प्रलोभन का शिकार हो कर अपना वोट बेच देता है 5 साल में एक बार- यह एक अटल सत्य है- और फिर सरकार और नेता को गाली देता है- जनता याने वोटर पर एक रचना देखिए
दारू दे जाता है दगा
मुर्गा मारता बुद्धि को //
कंबल कब्र समान है 
समझाए कौन मूर्खों को//
तेरी जेबें काट के ही
यह खैरात देते हैं तुझे //
अकल तेरी गिरवी रखी
कौन समझाए अब तुझे//
तेरा ही घर जलके यह
बोटी आग पे सेंकते हैं //
तेरी तरफ यह पापी जन
सूखी रोटी ही फेंकते हैं//
5साल तक भविष्य अपना
तू ख़ुदग़र्ज़ को सौंपता है //
और फिर नादान वोटर तू
क़िस्मत पे अपनी रोता है//
देश में प्रचलित लोकतांत्रिक पद्धति का मैं कभी भी समर्थन रहा नहीं- इससे मेरा कब का मोह भंग हो चुका है- पर इसके पीछे भी एक ठोस कारण है - मेरे कई घनिष्ठ बाल सखा- जिन्हे आम बोलचाल की भाषा में ' लंगोटीया यार ' कहा जाता है इस कलुषित क्षेत्र में उतर कर अपना रंग बदल चुके है- केवल एक ही मित्र खरा साबित हुआ पर उस बेचारे ने जनता की सोची इस लिए उसे उसकी पार्टी ने नकार दिया और टिकेट दिया नहीं इस बार - खैर जनतंत्र में किस तरह उल्लू बनते हैं हम उस पर एक 'पेरोडी' प्रस्तुत है आप सब के मनोरंजन और जागरूकता के लिए - मूल गीत है ' राजकुमार' फिल्म से ' तुमने किसी की जान को जाते हुए देखा है '- देखिए पढ़िए शायद आनंद आए आपको
तुमने किसी इंसान को बनते उल्लू देखा है
जनतंत्र में तो वोटर अब उल्लू ही बन रहा है (2) -----
क्या जाने होती हैं क्यों इस देश में चुनावें
देते ही रहते हैं यह हम को तो बस छलावे
शक्कर का नाम ले कर गुड भी न दे रहा है
जनतंत्र में तो वोटर अब उल्लू ही बन रहा है (2) -----
वादे हज़ारों करते पूरे कहाँ यह पर होते
धोखे पे धोखे खा कर सोए हुए हो रहते
अब जागो रे नादानो- कोई जगा रहा है
जनतंत्र में तो वोटर अब उल्लू ही बन रहा है (2) -----
गोशाले की रखवाली कैसे करे रे कसाई
सच हारती है झूठ से कैसी है यह लड़ाई
सच ही की जीत होती इतिहास कह रहा है
जनतंत्र में तो वोटर अब उल्लू ही बन रहा है (2) -----
यह देश है हमारा नहीं नेता की बपौती
फसलोंपे उनका हक़ क्यों हम करते हैं जो खेती
उठ आँसू पोंछ ले तू - तेरा देश रो रहा है
जनतंत्र में तो वोटर अब उल्लू ही बन रहा है (2) -----
करते हैं यह बहाने ग़रीबों के लिए हैं हम
हम ने तो देखा पर दौलत से चलता सिस्टम
कमज़ोरी का ही तेरी फायदा उठा रहा है
जनतंत्र में तो वोटर अब उल्लू ही बन रहा है (2) -----
कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत है- आप समझ जाएँगे ज़रूर - इतना भरोसा है मुझे
मौसम का देख बदला रुख़ मातम यह मनाने लगे
देश भर के मशहूर मनहूस महफ़िल हैं सजाने लगे//
मौका मिला जब मज़े थे लूटे मर्सिया हैं पढ़ने लगे
मगरमच्छके नक़ली आँसू मर्कट अब बहाने लगे //
मेरा मुल्क़ कहने वाले मज़ार मुल्क़ का बनाने लगे
मूर्खों का मजमा लगा कर मच्छर यह भगाने लगे//
नाम के साथ कोई लाए 'लू' बहार के वादे करने लगे
दानव जैसा है आचरण पर नामे पे देव लगाने लगे //
नाम जिसका हो मुल्ला उसपे भरोसा क्यों करने लगे
नीतिहीन कुछ ऐसे हैं जो नीति की दुहाई है देने लगे //
शरद ऋतुके समय में भैया सावन जब बरसने लगे
नाम से क्या मिल जाएगा यह पाले जो बदलने लगे//
साँप बिच्छू से हैं भयंकर इरादे इनके हैं दिखने लगे
क्या होगा इस देश का बताओ गद्दार इकट्ठे होने लगे//
राष्ट्रवादी अब चूप न रहो संकटके बादल है छाने लगे
हाथ से हाथ मिलाओ गद्दारों के दिन पूरे हैं होने लगे //
सभी मित्रों से अनुरोध है - यदि आपको इस कविता में कोई सार्थक संदेश दिखता है तो इसे अपने दोस्तों के साथ शेयर करें अवश्य
तो लो भाई इस अति व्यस्त दुनिया में हम एक अनोखे निठल्ले हैं जो सिर्फ़ अपनी ही हांकता रहता है भले ही कोई सुने न सुने - कोई बात नहीं जी- हम तो बोलते ही जाएँगे अगर हमारी आत्मा और विवेक इस बात की गवाही दे कि हम सही बोल रहे है-
तो हुआ यूँ कि अब की बार जो लोक सभा बनी वह है सोलहवीं लोक सभा - और साहित्य में जो शृंगार रस है उसमें 16 का क्या महत्व है आप जानते ही हैं- तो एक बहुत ही मशहूर शृंगार रस ( रोमांटिक गीत) के आधार पर एक पेरोडी प्रस्तुत है- आप देखें तो भी ठीक न देखें तो और भी ठीक.. गीत है 'दिल तेरा दीवाना है सनम'- ध्यान रहे इस गीत में गीत शुरू होने से पहले 2 पंक्तियाँ है उन्हे भी मैने जोड़ा है पेरोडी में
ले कर वोट हमारे दूर हम से हो गये
इस पाजीपन पे आपके हैरान हम हुए- आ $$$$$$$$$------
कैसा कमीना तू है अरे नेता (2)
यह बता तू फिर हमें वोट क्यों देता (2)
करप्ट है सिस्टम-- करप्ट है सिस्टम -------
चुनावों का अजीब है चक्कर
दौलत और मजबूरी की है टक्कर
हर बाज़ी दौलत जीत के आई है
ज़ाहिर सी बात है रे घनचक्कर
कुछ दौलत का असर- कुछ ताक़त का असर
कैसा कमीना तू है अरे नेता (2)
यह बता तू फिर हमें वोट क्यों देता (2)
करप्ट है सिस्टम-- करप्ट है सिस्टम -------
भूखे नंगे हों जब तक देश में
हम तो काटेंगे जीवन ऐश में
आहों से डरना सीख ग़रीबों के
कटता है जीवन जिनका क्लेश में
कुछ चलन का असर- कुछ मक्खन का असर
कैसा कमीना तू है अरे नेता (2)
यह बता तू फिर हमें वोट क्यों देता (2)
करप्ट है सिस्टम-- करप्ट है सिस्टम -------
कैसा जनतंत्र है यह मेरे भैया
पापकी डूबती न जहाँ नैया
कसाई बन कर के सारे हैं खड़े
बचाए जान अब कैसे गैया
सब कुछ है बेअसर- सब कुछ है बेअसर
कैसा कमीना तू है अरे नेता (2)
यह बता तू फिर हमें वोट क्यों देता (2)
करप्ट है सिस्टम-- करप्ट है सिस्टम -------
देखिए कुछ ग़लत लिखा हो तो बताइए - अगर पढ़ने का समय निकाल पाते हैं तो
एक और पेरोडी - चुनाव से पहले 'वादे करना ' और चुनाव के बाद 'वादों को भुला देना' अब यही नेताओं का काम रह गया है- चाहे किसी भी पार्टी से क्यों न हों- तो उन पर एक पेरोडी हो जाए - वादे पर जब है तो सबसे बढ़िया गीत क्या हो- फिल्म 'ताजमहल' का ' जो वादा किया ' और कौन सा- तो लीजिए
जो वादा किया था वह भूलना पड़ेगा (2)
जनता या मीडीया चाहे कुछ भी कहे
ढीठ बनना पड़ेगा - जो वादा किया था वह भूलना पड़ेगा (2)---
बड़े बेले पापड़ तो सत्ता मिली है
उम्मीदों की कलियाँ दिल में खिली है - आ..आ ..आ ..
पागल हूँ क्या - अहमक हूँ क्या जो
वादा निभाना पड़ेगा- जो वादा किया था वह भूलना पड़ेगा (2)---
अब तक कहो कितनो ने वादे निभाए
कहो कितनों ने तुम को चूना लगाए - आ...आ..आ..
पहले हुआ था जो रे तुम्हरे साथ
वही करना पड़ेगा - जो वादा किया था वह भूलना पड़ेगा (2)--
सुनो रे नालायकों अब बात यह मेरी
भुगतते हो जो ग़लती है ही तुम्हारी - आ...आ...आ..
खाए धोखा- पर न जागा तो
यूँ ही मारना पड़ेगा- जो वादा किया था वह भूलना पड़ेगा (2)
देश की भ्रष्ट और कलुषित राजनीति पर 4 पंक्तियाँ
रा --- राखी दिखा कर यह राख हैं मलते
ज --- जनेऊ दिखा कर जल्लाद बन जाते
नी -- नीतिकी बस यारों यह कर देते इति
ति -- तिरस्कार के लायक है अब राजनीति
* हर बार भरोसा- विश्वास और उम्मीदें पर बदले में सिर्फ़ धोखा और छलावा
एक कड़वा सच
छुटपन से सिखाते रहे बेटे को
बेटा ध्यान लगा कर पढ़ा कर //1
खाएगा क्या कभी सोचा तू ने 
बिन पढ़े यहाँ रे तू बड़ा हो कर //2
पैसा ही सब कुछ है अब यहाँ
दौलत के बिना यहाँ कुछ नहीं//3
जेबें जिसकी खाली होती यहाँ
उसकी तो होती कोई पूछ नहीं//4
अच्छा कमाएगा जो तू बेटा
होंगे तेरे पास बंगला और गाड़ी//5
शान तेरी बढ़ जाएगी सोच ज़रा
जो पहने बीवी तेरी कीमती साड़ी//6
हमने जो बीज बोया उसके मन
वही अब महाद्रूम बन खड़ा हुआ //7
फ़ुर्सत बेटेके पास बिल्कुल नहीं
बस दौलत के पीछे है पड़ा हुआ //8
माता पिता जिये है या हैं मरे
सोचे न बेटा क्यों कि व्यस्त है//9
सब कुछ तो दौलत खरीद सके
दौलत कमाने में वह मस्त है //10
दो बोल रे उसके प्यार के हाय
सुनने के लिए अब तरसते हैं//11
सूने कमरे में बैठ कर अब तो
दीवारों से हम सर टकराते हैं //12
काश स्वार्थ का ज़हरीला बीज
नन्हे से मन में हम नहीं बोते //13
बेटे के संग अब हम हंसते रहते
तक़दीर पे यूँ हम तो नहीं रोते //14
ईश्वर की बड़ी कृपा है मुझ पर मेरा कोई बेटा नहीं- बस एक ही बेटी है जो हमारा भरपूर ख़याल रखती है
मित्रों जैसा कि मैं पहले से कहता आया हूँ स्नेह- प्रेम- सदभावना जैसी भावनाएँ अब केवल किताबी रह गयी है जिनका उपयोग सार्वजनिक सभाओं में नेताओं द्वारा ही क्या जाता है आज कल- मनुष्य के हृदय की कोमल भावनाएँ खो जाने के कारण समाज पर राक्षसी स्वभाव अधिक दिख रहा है आज कल - फ़ेसबुक जैसा अनोखा और निराला माध्यम के होने पर भी इसका सही उपयोग कोई कोई ही करता है- मैने पर्याप्त प्रयास किया पर कोई सुने कैसे वही "व्यस्तता की अधिकता" और " फ़ुर्सत तथा समय की कमी" फिर भी गिनती के ही सही कुछ मित्र मिले मुझे यहाँ जिनसे दिल का रसिहता सा बन गया है - इसी आपबीती पर एक कविता प्रस्तुत है छोटी सी- एक निवेदन है कविता की हर पंक्ति का पहला अक्षर उपर से नीचे तक अवश्य पढ़ें एक बार
उ ------- उतनेकी ही अरमान करो भाई- जितनी की औकात है
द ------- दम भरो सदा प्यार का सबको भाती कब तेरी बात है
य ------- यकीनका पौधा जहाँ न हो प्यार का पेड़ कैसे पनपे
न ------- नहीं आसान है दिल जीतना कह गये हैं अच्छे अच्छे
हो ------- होनी तो होती है यहाँ उम्मीद तू अनहोनी की न कर
श ------- शक्ल देखती अब है दुनिया सीरत कोई न देखे मगर
क ------- कह कह कर तो हार गये भाई जाने जुनून था कैसा
र -------- रहने दे अब उनकी छोड़- कोई तो मिला तेरे ही जैसा
क्या लाभ ऐसी शिक्षा का ?
"गणित का पाठ" पढ़ा ज़रूर - पर लाभ हानि के आगे गया नहीं
साहित्य की शिक्षा तो पाई ज़रूर -पर सही हित क्या जाना नहीं//1
"भूगोल के सबक" पढ़ा बचपन में पर रुपया ही गोल इतना जाना
"इतिहास के किस्से" कई पढ़ा पर औरों की इति पर हँसना जाना //2
"संस्कृत के पाठ" पढ़े गुरुजी से- पर संस्कृति से हम दूर हो गये
"विज्ञान के प्रयोग" ज़रूर थे किए - पर ज्ञान क्या है न जान पाए//3
"समाज शास्त्र" "नगर विज्ञान" समाज नगर का किया विनाश
सारी पढ़ाई कुछ भी काम न आई अब मन मे हो चला विश्वास//4
शिक्षित हो कर जो अपनी ही सोचे तो क्यों न हो इसका धिक्कार
ऐसे मनुष्य को मनुष्य कहना भाई- मनुष्यता का है तिरस्कार //5
विद्यालय- महाविद्यालय देश के क्या खाक शिक्षा कहो देते हैं
पेट में खाना भरने के लिए बस एक एक काग़ज़ ही थमा देते है //6
इस बात को समझे कौन की शिक्षा ही डालता चरित्र का नींव
सही नैतिक शिक्षाके बिना कहो भाई ऐसे बदले विंब - प्रतिविम्ब//7
कुछ दिनों से समाज और देश को ले कर काफ़ी गंभीर बातें हो गयी हैं- अब कुछ पेरोडी हो जाए दिमाग़ और दिल को हल्का करने के लिए ..
मित्रों देश में भ्रष्टाचार और भाई भतीजावाद के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए भा ज पा वालों जनता का समर्थन माँगा और जनता ने भी उन्हे अनुग्रहित कर दिया ढेर सारे सीट दे कर- परंतु दुख इस बात का है कि भा ज पा वाले इस अनुग्रह को भूल गये और जिनके खिलाफ बोल कर वोट हासिल किए थे - आए दिन उन्ही लोगों को एक एक करके अपनी पार्टी में ले रहे हैं- यह तो सरासर धोखा ही हुआ न- सो उसी पर एक पेरोडी- क्यों वोट दें हम - मूल गीत है फिल्म हाउस नंबर 44 का "तेरी दुनिया में जीने से तो बेहतर है"
क्यों वोट दें हम - धोखा खाने को ?
तेरी सरकार को चुनने से तो
तो बेहतर है कि घर पे सोएँ
वही बेईमान और धोखेबाज़
जहाँ जाएँ - जिधर जाएँ--------
कोई तो ऐसा होता नेता
निकलता वादे का पक्का
कैसा अंधेर है यह सोचो
जो वादे से यह पलट जाएँ
वही बेईमान और धोखेबाज़
जहाँ जाएँ - जिधर जाएँ--------
अरे ओ आसमाँ वाले बता
इस में बुरा क्या है-
अरे ओ आसमाँ वाले
के सब पाजी ग़लत नेता
एक ही झटके में टपक जाएँ
वही बेईमान और धोखेबाज़
जहाँ जाएँ - जिधर जाएँ--------
खेतों में फसलें तो हैं बहुत
कीड़े बन नेता खा जाएँ
कीड़े मारने की कोई दवा
कहें से हम को मिल जाएँ
वही बेईमान और धोखेबाज़
जहाँ जाएँ - जिधर जाएँ--------

Thursday, December 18, 2014



अफ़साना- ए- बेशर्मी
* आतंकवादी हमला हुआ - कुछ लोग मरे
* राजनीति वाले कड़े शब्दों में निंदा की
* कुछ एन जी ओ निकल पड़े बच्चों और महिलाओं का जुलूस ले कर मोमबत्ती के साथ
* अख़बार में फोटो छप गया- न्यूज़ चैनल पर चर्चा हुई
* और फिर सब ठंडा- जब तक एक और हमला न हो
लगे रहो वीर बहादुरों - ऐसा करने से ही आतंकवाद तो क्या उसके सात पुश्त भी समाप्त हो जाएँगे-

Wednesday, December 3, 2014


कुछ कड़वे घूँट- अगर हजम हो तो

दुष्ट जन का जिसने संहार किया - 
क्या वह कृष्ण हमारे मन में हैं
संत जन का जिसने साथ दिया - 
क्या वह कृष्ण हमारे मन में हैं
लाज बचाई थी कृष्णा की जिसने-
क्या वह कृष्ण हमारे मन में हैं
पार्थ को जिसने उपदेश था दिया - 
क्या वह कृष्ण हमारे मन में हैं
हलवा पूरी और बताशे खाओ भक्तों- 
आज श्री कृष्ण जन्माष्टमी है
कृष्ण के नाम पे मौज मस्ती करो - 
उत्सव तो बस बहाना एक है


गंभीरता से सोचिए इस पर

हिन्दी में जब कोई बात करे तो
अनुप्रवेश अँग्रेज़ी वहाँ कर जाती है //
लेकिन अँग्रेज़ी बोलने जब भी लगो 
ज़ुबान धड़ल्ले से चलती रहती है //
अँग्रेज़ी अगर अकेली खड़ी रहती है
चलो उसको वैसे ही रहने तो दो //
हिन्दी बोलो तो शुद्ध बोलो भई
भाषा को खिचड़ी मत यूँ होने दो //
मेरी अपनी भाषा में कहे "कुंदन"
श्रेष्ठ शब्दों का विशाल भंडार //
तो फिर कहो विदेशी भाषा से
क्यों ले आऊँ मैं कोई शब्द उधार //


हाय रे इनसान की मजबूरी

हाथपे हाथ धरके बैठो उपरसे क़िस्मतका रोना
यही बदनसीबी है मुल्क की आया कैसा ज़माना
रेतपे बनाएँ महल वही होशियार अब हैं कहलाते
इनकी समझकी तौबा खुली आंखसे सपने देखते
न सुधरा है सुधरेगा न क्या हो गया नहीं पता
साधुको अब मिले यातना बदमाशोंको मिले सत्ता
नख से शिख तक जिनमें कालिख है भरी हुई
किस तरह सफेद पोश अब वही है यहाँ कहलाता
मजमा लगाके लोगोंका नेता कोई भी बन जाए
जन्नतका दिखाके सपना जहन्नुम हमको ले जाए
बुत बन कर बैठो जो क़िस्मत कैसे बदलोगे
रीढ़ हीन जो बने रहे ऐसे ही सदा तो रोओगे


जो समझते हैं दौलत ही सब कुछ है उनके लिए है यह कविता
दौलत कमाने के चक्कर में
अपनों से चला गया दूर कहीं
सब कुछ तो पास है मेरे लेकिन
पर दिल की सुने जो कोई नहीं //
एक दिन भी ऐसा था जीवन में
रोटी थी कम पर प्यार बहुत
समझा न प्यार के मोल को मैं
मैं करता रहा मनमानी बहुत
रोटी तो अब आगे रे पड़ी पर
इसे खाए जो वैसा तो कोई नहीं//
दुख का बोझ न जो उठा सका
मैं सुख को खोजने को निकला
मेरे मन के अंदर सुख था छुपा
मैं जाना न अहमक निकला
जिसे सुख कहता है सारा जहाँ
मिल गया है लेकिन खुशी नहीं//
सुख दुख तो है उड़ते यह बादल
जो आज यहाँ तो कल हो वहाँ
मौसम की भाँति यह बदल जाते
क्यों नहीं समझते हैं लोग यहाँ
इतनी सी बात जो जान लें सब
संसार में हो कोई भी दुखी नहीं//


नज़रिया ज़माने का - एक लघु कथा
यह सच है कि ज़माने में ज़्यादातर लोग धन को ही अधिक महत्व देते है आज कल- इंसानियत- भावनाएँ- सहृदयता- दया - करुणा जैसे शब्द बहुतों के लिए अब एक शब्द ही रह गये हैं- अपने रामाश्रय बाबू लेकिन किसी अलग मिट्टी के बने थे- उनके लिए मानव धरम ही श्रेष्ठ धरम था - इसीको लेकर उनकी पत्नी माया देवी उन्हे हमेशा लताड़ती रहती थी- पर रामाश्रय बाबू को राम का ही आश्रय था
एक दिन कार्यालय जाने के लिए निकल पड़े थे बाबू- रास्ते में बड़ी भीड़ देखी- ऑटो वाले से कहा- अरे रुक रुक ज़रा - क्या हुआ देख लेते हैं- क्या पता कोई मुसीबत में हो- ऑटो वाले ने कहा- भाई जी- क्यों औरों की फटी में टाँग अड़ाते हो ? सारे दुनिया का ठेका ले रखा है क्या आपने? रामाश्रय बाबू ने उसे झिड़क दिया और कहा हर कोई ऐसा सोचे तो दुनिया का क्या होगा - चल आ मेरे साथ
जा आकर देखा एक पेड़ के नीचे - एक आदमी बेसूध पड़ा था- कहने को तो सैकड़ों उसे घेर कर खड़े थे पर पास कोई नहीं जा रहा था- रामाश्रय बाबू जा कर उसके मुख पर पानी के छींटे मारे और पानी पिलाया तो आदमी उठ बैठा- उसने पूछने पर बताया गाँव में सूखा पड़ जाने के कारण रोज़गार की तलाश में आया था शहर- 3 दिन का भूखा था इस लिए चक्कर आ गया- रामाश्रय बाबू ने कहा चिंता मत करो भाई- इंसाना ही इंसान के काम आता है- फिर उसे सहारा दे कर घर ले आए - नहलाया धुलाया भोजन करवाया और कहा ऐसा करो मैं तुम्हारे लिए कोई बंदोबस्त कर दूँगा ज़रूर- तब तक तुम मेरे बगीचे का काम और घर का छोटा मोटा काम कर देना- तुम इसे अपना ही घर समझो- इधर माया देवी का पारा गरम यह सब देख कर .
कुछ ही दिनों में वह आदमी परिवारे स घुलमिल गया - बच्चे उसे चाचा कहने लगे और माया देवी भी मानने लगी इंसानियत की जज़्बात को
अचानक एक दिन सुबह जब नींद खुली तो देखा कि वह आदमी घर के सारे कीमती समान उठा कर चलता बना है- माया देवी माता पीट कर दहाड़ें मार कर रोने लगी- पर इस घटना का रामाश्रय बाबू पर कोई असर नहीं- कुछ ही देर में पड़ोसी आ कर जमा हो गये - सारी बातें सुन कर हर किसी ने रामाश्रय बाबू को धिक्कारा- आपको क्या पड़ी थी वह मरता या ज़िंदा रहता - आपने तो खुद मुसीबत को न्योता दिया था अब भुगतो - किसी एक ने भी नहीं कहा- राम राम क्या ज़माना आ गया - कैसा पापी था यह - जिसने सहारा दिया प्यार दिया उसीको लूटा ..
रामाश्रय बाबू मन ही मन हँस रहे थे ज़माने के इस नज़रिए पर - शराफ़त को लताड़ने वाले हों जिस समाज में उस समाज में बदलाव की उम्मीद कौन करे ?


समझे तो 'भला' - न समझें तो " बला "

दो पग गर कोई साथ चले भी मान लो उसका एहसान
पग में तुम्हारे कोई काँटे बिछाए तो भी न हो परेशान //
जीवन पथ पर रखो याद सुख और दुख दोनो मिलेंगे
आज अगर बंजर मन है कल को शायद फूल खिलेंगे //
अपने मनको भटकने न दो प्रभुके चरणमें रखो ध्यान
स्वच्छ और निर्मल रहो तो अवश्य करेंगे प्रभु कल्याण//
हर जड़ चेतन में देखो रे प्रभु को उल्लासित रहेगा मन
मन के सुख को छोड़ के जाने क्यों सब खोजते हैं धन//
जिसने तुझको पेट दिया वही तो तुझको दिलाए अन्न
कर ले भलाई औरों का और करता जा तू नाम कीर्तन//
बात खरी कहता 'कुंदन' समझो न केवल इसे उपदेश
जाने क्या क्या झेला जीवन में पर नहीं मन में क्लेश //
खुश रहो खुद खुशियाँ बाँटो यही जीवन ही तो जीवन है
जिसने समझा न इस बातको उसका जीवन विषम है//


हर कार्य के अलग अलग चरण होते हैं- जब सभी चरणों पर कार्य में एकाग्रता और निष्ठा पर्याप्त हो तभी उस कार्य को सुचारू रूप से संपन्न हुआ माना जाता है- एक आध उदाहरण दे देता हूँ
1.भोजन - अन्न या अन्य सामग्री ठीकसे उगाए गये हों// व्यापारी उसमें मिलावट न करे // भोजन पकाने वाला अपनी कला में निष्णात हो // भोजन परोसने वाला प्रेम पूर्वक और उचित ढंग से परोसे - तभी भोजन का आनंद आता है 
2. वस्त्र - कपड़े बनाने वाले सही ढंग से कपड़े बनाएँ// उनसे वस्त्र बनाने से पहले आपके शरीर का नाप ले कर कपड़ा काटने वाला भी पारंगत हो // कटे हुए कपड़े को सीलने वाला भी अनुभवी हो// कपड़ा बन जाने पर उसे सही ढंग से इस्त्री करनेवाला भी हो- तभी उस वस्त्र का धारण आरामदेह होता है
3. आवास - भवन निर्माण से पहले पर्याप्त ज्ञान रखने वाला जी कोई नक्शा बनाए - ईंट- बालू- सीमेंट भी मानक के अनुसार लाए जाएँ - भवन बनाने वाल मिस्त्री भी कुशल हो- तभी उस भवन में रहना मंगलकारी होता है
वही बात देश और समाज के लिए भी लागू होता है - जब समाज में आपसी तालमेल और समरसता न रहे न कोई देश की प्रगती होती है न ही कोई समाज स्वस्थ बनता है - यह हर किसी की ज़िम्मेदारी है देश और समाज के प्रति ईमानदार रहें हमेशा

एक प्रेरक कथा


बड़ा उदास मन से बैठा था वह- मैने जब उसके घर जा कर देखा तो मुझे बड़ा अजीब लगा- हमेशा खुश रहने वाला मेरा दोस्त आज इतना बुझा हुआ सा क्यों है ? बार बार आग्रह करने पर उसने आख़िर बता ही दिया कि ऑफीस में साहब ने बड़ी डाँट पिलाई उसे सबके सामने और जवाब में कुच्छ भी नहीं कह पाने के कारण उसे अंदर ही अंदर घुटन हो रही है ..
मैने उससे कहा बस इतनी सी बात- अरे दोस्त कब काम आएँगे ? चल मैं इलाज बताता हूँ इसका - उसे अपनी गाड़ी में बिठा कर मैं उसे उसके बॉस के घर के पास ले गया - फिर कहा देख तेरी क़िस्मत अच्छी है- सामने की स्ट्रीट लाइट जल नहीं रही है- ऐसा कर सामने जो नाली हैं न वहाँ से कीचड़ उठा कर ला- और उसे फेंक दे तीर बॉस के बंगले की दीवार पर- सुबह जब देखेगा तब बच्चू को पता चलेगा दूसरों की बेइज़्ज़ती का नतीजा क्या होता है
उसने मुझे देखा हैरानी से और कहा पर कीचड़ से मेरे हाथ गंदे नहीं हो जाएँगे क्या ? मैने कहा अक्ल के दुश्मन - हाथ गंदे होने की फ़िक्र है तुझे जो ढोने पर सॉफ हो सकते हैं- पर बेकार की बात सोच कर अपना दिल और दिमाग़ दोनों को गंदा कर रहा है यह पता नहीं तुझे .अरे उसने तुझे डांटा तो यह उसकी बेवक़ूफी ही है जो अहंकार का एक बाइ प्रोडक्ट होता है - तू तो जानता है न तू क्या है- अगर तेरा मन साफ है तो मार गोली ऐसी बातों को
उसने मुझे गले लगा लिया और कहा सच यार दोस्त सबसे अनमोल तोहफा होता है


हर कोई इस बात को ले कर आशावान हैं की प्रचलित लोकतांत्रिक व्यवस्था के सहारे इस देश का भाग्य बदलेगा- पर मैं इससे कतई सहमत नहीं हूँ - कारण ?
1. देश में जब लोकतांत्रिक व्यवस्था का सूत्रपात हुआ तभी से गड़बड़ी शुरू हो गयी- देश को आज़ाद(?) करने का दावा करने वाली कांग्रेस पार्टी में बहुमत को अस्वीकार कर ज़हरलाल न हारूं को प्रधान मंत्री बनाया गया - देश ज़हर पी रहा और हर मोर्चे पर हारता रहा ( कोई एक सरकारी योजना बताइए जिस में वास्तविक मंगल हुआ हो जनता का - एक योजना आयोग एक होते हुए)
2. अँग्रेज़ों के शासन काल में जिन भारतीयों के हाथ में प्रशासन रहा वही 1947 के बाद भी वही डटे रहे जिससे न तो मानसिकता में परिवर्तन आया न ही व्यवस्था में
3. काला धन और काले धंधे वाले लोगों का सरकार के साथ शुरू से ही गहरा ताल्लुक रहा - और कोयले की ख़ान में सफेदी की सोचना पागलपन नहीं तो और क्या है ?
4. काले धंधे वालों को जब अपनी ताक़त का एहसास हुआ तो ऐसे लोग नेताओं की सहायता करने के स्थान पर खुद राजनीति में उतर आए और अब कितने अपराधी देश के क़ानून के रखवाले हैं सब को पता है
5. न्याय के नाम पर ढकोसला चल रहा है देश में - जिसकी जेबें भारी न्याय उसीके हक़ में- न्याय मूरती कहलाने वाले भी भ्रष्टाचार में फँसे हुए है इसका नमूना आए दिन देखने को मिलता है
6. हर पार्टी दूसरे की बुराई करके सिंहासन हथियाता है और फिर वही करता है जो औरों ने किया
7. बदलाव का झांसा देने वाले जैसे ही सत्ता पर क़ाबिज़ होते हैं अपने पुराने दुश्मनों को गले लगा कर जनता के विश्वास को तोड़ते हैं
तो हम कैसे मान लें कि यह नेता देश बदल सकते हैं- कुछ हैं यहाँ जो लूटने के लिए पैदा हुए हैं और कुछ और हैं जिनकी क़िस्मत में लूटे जाना ही लिखा है
अगर ईश्वर ही बचाए तो बचाए इस देश को


बेटा - पिता जी- सुना है देश के संसद और विधान सभाओं में पढ़े लिखे नेताओ की संख्या अब बहुत बढ़ गयी है
पिता - सही सुना है बेटे
बेटा - पर पिताजी मुझे यक़ीन नहीं होता इस पर - मुझे तो लगता है यह लोग स्कूल के दरवाज़े तक भी नहीं गये कभी चाहे किसी भी पार्टी के क्यों न हों
पिता - ऐसा क्यों सोचता है बेटा - कोई कारण बता
बेटा - एक बात बताइए - शिक्षा आदमी की सोच को सकारात्मक दिशा देते है न ?
पिता - हाँ बेटा
बेटा - अक्सर अध्यापक बच्चों को सिखाते हैं किसी रेखा को बिना मिटाए छोटी करने का सबसे बढ़िया तरीका है उसीके पास एक बड़ी रेखा बना दो
पिता - हाँ यह तो है
बेटा - तो फिर चाहे कोई भी नेता हो अपनी अच्छाई के बारे में बताने के वजाय दूसरों की बुराई का बखान इतना ज़्यादा क्यों करते हैं भला
पिता - शायद इंसान और नेता में यही सबसे बड़ा अंतर है बेटा
क्या कहने ऐसे लोकतंत्र की


जो मुझसे परिचित हैं उन्हे पता है ही मैं पुरानी फिल्मों के लोकप्रिय गीतों को आधार बना कर पेरोडी लिखता रहता हूँ कई वर्षों से.
नेताओं के आश्वासन और फिर वादे से पलट जाने को ले कर एक पेरोडी लिखें की इच्छा ने आज ज़ोर पकड़ा -तभी मुझे याद आया 'पंचतंत्र' का वृषभ और श्रृगाल का उपाख्यान- उसी पृष्ठभूमि पर फिल्म संगम का गीत ' मेरे मन की गंगा' को आधार बना कर प्रस्तुत है एक पेरोडी
तेरे किए गये वादे और मेरे दिल के भरोसे का
बोल नेता बोल संगम होगा की नहीं
अरे बोल नेता बोल नेता बोल संगम होगा की नहीं......
होगा ---- धीरज रख
सड़सठ साल तो निकल गये हम श्रृगाल बनते आए हैं
वृषभ बन कर इन नेताओं ने सदा ही हम को लुभाए हैं
इतना तो बतला दे फल टपकेगा कि नहीं
बोल नेता बोल संगम होगा की नहीं
अरे बोल नेता बोल नेता बोल संगम होगा की नहीं......
कह न - सब्र कर
सब्र का फल मीठा होता है बचपन ही से पढ़ा था रे
खाएँ फल कैसे हम जनता - बीच में तू जो खड़ा है रे
'कल' 'कल' तेरा रे नेता 'आज' होगा कि नहीं
बोल नेता बोल संगम होगा की नहीं
अरे बोल नेता बोल नेता बोल संगम होगा की नहीं......
चूप भी कर कमीने
हम तो हैं सीधे बंदे रे भाई- बकरा बनते आए सदा
वैष्णव का चोला ओढ़ नेता- दिखाए कसाई की ही अदा
घड़ा तेरे पापों का फूटेगा कि नहीं
बोल नेता बोल संगम होगा की नहीं
अरे बोल नेता बोल नेता बोल संगम होगा की नहीं......
- बोले जा --- बोले जा - क्या उखाड़ लेगा मेरा ?


आप सब जानते ही हैं 'समय की कमी' और 'व्यस्तता' पर चुटकी लेना मेरा अब अभ्यास बन गया है- तो जाते जाते एक चुटकुला उसी पर
रैलवे स्टेशन में फोन की घंटी बजने लगी स्टेशन मास्टर की- उन्होने उठाया- आगे क्या हुआ देखिए
स्टेंशन मास्टर- हेलो- कौन साहब बोल रहे है ?
व्यस्त नागरिक- जी आप मुझे नहीं जानते शायद
स्टेशन मास्टर- तो फोन किस लिए किया 
व्यस्त नागरिक - जी आपसे एक मदद चाहिए
स्टेशन मास्टर - कहिए अगर संभव हुआ तो करूँगा ज़रूर
व्यस्त नागरिक - जी बात यह है मैंने दिल्ली जाने का टिकेट ले रखा है
स्टेशन मास्टर - तो मैं क्या करूँ ?
व्यस्त नागरिक - मैं बहुत व्यस्त हूँ - स्टेशन तक जाने के लिए समय नही मेरे पास
स्टेशन मास्टर - आप सीधे सीधे बताइए चाहते क्या है ?
व्यस्त नागरिक - अगर ट्रेन मेरे घर के सामने से ले जाएँ तो बड़ी मेहेरबानी होगी
स्टेशन मास्टर - क्यों नहीं- क्यों नहीं- आप जैसे महान पुरुषों की सेवा के लिए ही तो हम बैठे हैं यहाँ - एक काम कीजिए अपने घर तक रेल लाइन बिछा दीजिए- तो मैं ज़रूर आपकी बात रख लूँगा
कल्पना है पर इस तरह के लोग होते भी हैं दुनिया में ( अनुभव है मुझे ऐसे लोगों का )



आप सब जानते ही हैं 'समय की कमी' और 'व्यस्तता' पर चुटकी लेना मेरा अब अभ्यास बन गया है- तो जाते जाते एक चुटकुला उसी पर
रैलवे स्टेशन में फोन की घंटी बजने लगी स्टेशन मास्टर की- उन्होने उठाया- आगे क्या हुआ देखिए
स्टेंशन मास्टर- हेलो- कौन साहब बोल रहे है ?
व्यस्त नागरिक- जी आप मुझे नहीं जानते शायद
स्टेशन मास्टर- तो फोन किस लिए किया 
व्यस्त नागरिक - जी आपसे एक मदद चाहिए
स्टेशन मास्टर - कहिए अगर संभव हुआ तो करूँगा ज़रूर
व्यस्त नागरिक - जी बात यह है मैंने दिल्ली जाने का टिकेट ले रखा है
स्टेशन मास्टर - तो मैं क्या करूँ ?
व्यस्त नागरिक - मैं बहुत व्यस्त हूँ - स्टेशन तक जाने के लिए समय नही मेरे पास
स्टेशन मास्टर - आप सीधे सीधे बताइए चाहते क्या है ?
व्यस्त नागरिक - अगर ट्रेन मेरे घर के सामने से ले जाएँ तो बड़ी मेहेरबानी होगी
स्टेशन मास्टर - क्यों नहीं- क्यों नहीं- आप जैसे महान पुरुषों की सेवा के लिए ही तो हम बैठे हैं यहाँ - एक काम कीजिए अपने घर तक रेल लाइन बिछा दीजिए- तो मैं ज़रूर आपकी बात रख लूँगा
कल्पना है पर इस तरह के लोग होते भी हैं दुनिया में ( अनुभव है मुझे ऐसे लोगों का )


यूँ तो कहा जाता है इस देश में 'जन-तंत्र' है पर इस जीवन में जो जो देखा है अब तक उससे मुझे लगता है यहाँ ' गन- तंत्र' ही है - क्यों की जन अर्थात जनता जब भी अपनी समस्या या पीड़ा बताने सरकार के पास जाती है तब उनका स्वागत सरकारी गन अर्थात बंदूक करती हैं और जब कोई गन के ज़रिए अपनी बातें रखता है तब सरकार घुटने टेक देती है-
वैसे तो कहा जाता है जन तंत्र के 4 स्तंभ होते हैं आप सभी जानते हैं पर इनकी असलियत क्या है आइए देखते हैं इस पेरोडी में- मूल गीत है फिल्म 'जिस देश में गंगा बहती है' का
जेबें न खाली होती है- जिनमें काली कमाई होती है
हम उस देश के नेता हैं(2) जहाँ अपनी ही मर्ज़ी चलती है -----
सरकारी बाबू जो होता है- वह तो अपना चमचा होता है
हाज़िर है गुलाम वह कहता है और हम को आका मानता है(2)
हम ज़ुबानी हुक्म देते हैं और क़लम उसकी चलती है
हम उस देश के नेता हैं(2) जहाँ अपनी ही मर्ज़ी चलती है -----
तुम जिसको अदालत कहते हो- वहाँ सिक्का अपना चलता है
होने दो चाहे कोई भी सज़ा- पेरोल भी लेकिन तो मिलता है (2)
यह क़ायदा और यह क़ानून- तुम लोगों के लिए होती है
हम उस देश के नेता हैं(2) जहाँ अपनी ही मर्ज़ी चलती है -----
जनतंत्र के पहरेदार हैं वह- मीडीया जो कहलाता है
मंत्र 5 'म'कार का मरते ही- क़दमों पे यह बिछ जाता है (2)
बिन हमरी मर्ज़ी के बोलो खबरें कहाँ कोई छपती है
हम उस देश के नेता हैं(2) जहाँ अपनी ही मर्ज़ी चलती है -----
अपने ही पापों की तो सज़ा जनता को मिलती आई है
यह गूंगी बहरी जो बनी रहे मज़े लेते मौसेरे भाई हैं (2)
सीधा जो बैल बना रहता - सब मार उसी पर पड़ती है
हम उस देश के नेता हैं(2) जहाँ अपनी ही मर्ज़ी चलती है ---


एक और लोकप्रिय गीत याद आ गया " हम तुम युग युग से यह गीत मिलन के गाते रहे हैं"= यह गीत प्रेम और समर्पण को ले कर था- पर जो प्रेम और समर्पण से दूर स्वार्थ और शैतानी की दुनिया में खोए हैं देश के नेताओं जैसे वैसे लोग अगर इस गीत को गाएँ तो कैसा रहे - देखते हैं इस पेरोडी में..
हम तुम युग युग से मिल बाँट के देशको लूटते रहे हैं
हम तुम दिखा के करिश्मा झोली अपनी भरते रहे हैं---
जब जब हमने इलेक्शन जीते- जब जब कुर्सी पे सवार हुए
अपने तो हो गये पौ बारह- हाहाकार देश में तो ज़रूर हुए
क्या क्या गुल हम ने खिलाए है- कोई तो यह जाने ही नहीं
कुछ सत्यवादी भौंकते रहे- पर जनता उनकी सुने तो नहीं
आ--आ --आ - आ
हम तुम सेवा का झांसा दे कर मेवा खाते रहे है
हम तुम बोटी खा के कुत्तों को हड्डी देते रहे हैं- हम तुम-------
जब भी जनतामें शोर मचे - हम कोई धमाका कराते है
जनता टकराए और मरे- हम बैठ तमाशा देखते है
हर्जाना देंगे यह कह देते - जो कभी नहीं हम देते है
जनता कर क्या सकती है- अपनी क़िस्मत पे यह रोते है
आ---आ---आ---आ--
हम तुम लोक तंत्र के नाम पे मस्ती करते रहे है
हम तुम और औरों की मेहनत की रोटी उड़ाते रहे हैं-- हम तुम---
वादे जो हम ने किए पूरे- अपना फिर वजन कहाँ होगा
जनता को अक्ल जो आ गयी- अपना फिर भजन कहाँ होगा
कहने को जो विरोधी है- उन सब से तो साथ गाँठ अपनी
बाहर का दिखावा है विरोध अंदर ही अंदर सब ठाट अपनी
आ---आ---आ---आ--
हम तुम भूखे नंगों के लिए खुदा बन कर आए हैं
हम तुम सात पुश्त तक सब लिखवके आए हैं- हम तुम -------


आरज़ू
मुझको बना दो प्रभु बारिश की बूँद
गिर जाऊं मैं इस तपती धरती पर //
चाहे भाप बन कर मैं उड़ जाऊं भले
काम मैं आ जाऊं किसी के मगर //
जनम लूँ फिर एक दिन मर जाऊं
खा पी कर मैं बिता लूँ यह जीवन //
इस को अगर जीवन है यहाँ कहते
किस काम का है बोलो ऐसा जीवन//
सब को मानूं अपना -दिल ऐसा दो
हर ठोकर झेलूँ हौसला मुझे ऐसा दो//
नहीं चाहिए स्वर्ग सुख मुझको प्रभु
इस मर्त्य को ही अब स्वर्ग कर दो//
हर दिल में भर दो तुम प्यार इतना
के हर तरफ बहार ही बहार दिखे //
रंजिश का न रहे यहाँ नामो निशान
सब की नज़र को 'कुंदन' प्यार दिखे//


यह बात और है कि मुहम्मद इक़बाल ने पाकिस्तान में रहना पसंद किया पर सारे जहाँ से अच्छा गीत तो लिखा था उन्होने - आज उसी गीत को नेता कैसे गाते हैं देखिए
सारे जहाँ में सबसे कुर्सी है हम को प्यारी
प्यारी-सारे जहाँ में सबसे कुर्सी है हम को प्यारी
इस कुर्सी पर ईमान से वारी है दुनिया सारी 
सारी - सारे जहाँ में सबसे कुर्सी है हम को प्यारी....
इस कुर्सी पे जो बैठे उसकी तो बात और है
खोटी जो कहे भी कहते हैं लोग है खरी
खरी - सारे जहाँ में सबसे कुर्सी है हम को प्यारी---
कोई भी जुर्म कर लो बेखौफ़ हो के रह लो
कुर्सी पे डटे जो हर कोई करे तरफ़दारी
दारी- सारे जहाँ में सबसे कुर्सी है हम को प्यारी.----
इंसान तो कुछ नहीं है सब कुछ है यह कुर्सी
बैठा जो इस पे उसकी - सब करते जी हुज़ूरी
हुज़ूरी- सारे जहाँ में सबसे कुर्सी है हम को प्यारी----
जब तक रहेंगे ज़िंदा रहे साथ यह कुर्सी का
मरने के बाद बन भूत करेंगे रे सेंध मारी
मारी - सारे जहाँ में सबसे कुर्सी है हम को प्यारी.---
बीवी बच्चों की छोड़ो- मामला जो हो कुर्सी का
कुर्सी के लिए करेंगे- हम देश से भी गद्दारी
गद्दारी - सारे जहाँ में सबसे कुर्सी है हम को प्यारी----

एक कहानी याद आ गयी बचपन में पढ़ी हुई
एक साधु बाबा नदी से स्नान करके लौट रहे थे उन्हे एक नन्ही चुहिया मिली रास्ते में घायल- उन्हे दया आ गयी उस पर और उसे फिर से कोई कष्ट न हो सोच कर उसे एक लड़की का रूप दे दिया मंत्र से. लड़की जब सयानी हो गयी विवाह के लिए वर की चिंता हुई .लड़की ने कहा मुझे सबसे अधिक शक्तिमान वर चाहिए . साधु ने सोचा जिस सूर्य देवता से हम सब को शक्ति मिलती है वही योग्य वर होंगे - परंतु सूर्य देव ने कहा मुझे तो बादल ढक लेता है आप बादल के पास जाएँ - बादल ने कहा मुझे तो पर्बत रोक लेता है आप उसके पास जाएँ- पर्बत ने कहा एक चूहा तो मुझे खोद कर बिल बना लेता है आप चूहे के पास जाएँ- अंततः चूहिया की शादी चूहे से हुई
इस कहानी से नेताओं को कभी कोई सीख मिली नहीं लगता है - जनता ही साधु बाबा है जिसने उसे शक्ति दी- परंतु अपनी असलियत भुला कर कुर्सी पाते ही यह नेता हवा में उड़ने लगते है और एक दिन धड़ाम से गिरते हैं ज़मीन पर--
आप याद कीजिए कई ऐसे नेता रहे जो कभी 'महापुरुष' कहलाए पर बाद में लोगों को याद भी नहीं रहा वो जीवित भी हैं या नहीं
कुछ हज़ार नेता अगर अपनी औकात में रहें तो कई करोड़ लोग सुखी हो जाएँ


एक काल्पनिक कथा ( लेकिन सत्य पर आधारित)
वार्षिक परीक्षा समाप्त हो गयी - रात को नेता जी ने बेटे से पूछा- क्यों बेटे पर्चे कैसे हुए ?
बेटे ने कहा हूँ तो आपका ही बेटा - ऐसे जवाब दिए कि सबकी छुट्टी हो जाएगी .
परीक्षा का परिणाम आया- बेटा सफलता पूर्वक असफल हुआ था- नेता जी का पारा चढ़ गया सीधे जा पहुँचे स्कूल में- प्रधानाचार्य से कहा बेटा बोल रहा था उसने बढ़िया जवाब दिया है तो फिर फेल कैसे ह्वा ?
प्रधानाचार्य ने उत्तर पुस्तिका माँगा कर दिखा दिए नेता को - बेटे ने हर पन्ने पर लिखा था " राष्ट्र हित को ध्यान में रखते हुए इस प्रश्न का उत्तर दिया नहीं जा सकता "
जैसा बाप वैसा ही बेटा - क्यों सही कहा न ?
याद कीजिए हर बार विरोधी कहते हैं सरकार ने फलाना किया ढिकाना किया - हम सत्ता में आते ही सब की पोल खोल देंगे और सब को जेल में डाल देंगे - पर होता कुछ नहीं- वही राष्ट्र हित की बात और जवाब कुछ नहीं .. हा हा हा


2 पंक्तियाँ उनके लिए - जिन्हे मुस्कराने पर बुखार चढ़ आता है
फ़ुर्सत निकल यार मेरे - 2 पल के लिए मुस्करा तो ले
लोग कहीं न समझ बैठे रे तेरे दाँत हो गये मटमैले //
डेबिट- क्रेडिट कार्ड से तू क्या क्या तो खर्च करता है 
मुस्कराने पर समय कर खर्च पड़ेंगे न पैसे या धेले //
मुस्कराहट वह जींस है जो हर दुकान पर चलता ही है
एक मधुर मुस्कान से सलटते देखा कितने ही झमेले //
मुस्कान से एक लाभ यह है दिल सब का तू जीतेगा
हँसमुख गुरु को ही तो मानते है दुनिया में उसके चेले//
'कुंदन' को जो कहना था उसने तुझे है रे बता दिया
जो मुस्काये न जग में रह जाता अक्सर यहाँ अकेले//
देख लो भाई अगर ग़लत कहा तो बोलो