Sunday, January 8, 2012

मैंने यह पाया कि न सिर्फ अपने इस ग्रुप में बल्कि हर ग्रुप में तो क्या अलग अलग पत्र-पत्रिकाओं में अधिकतर उदासी और दुःख के गीत गाये जाते हैं / ठीक है दुःख, उदासी जीवन का एक हिस्सा है , मैं यह मानता हूँ, लेकिन ठोकर लगने पर भी जिस तरह सफ़र जारी रखना ज़रूरी है , यह भी ज़रूरी है कि दुःख होने पर भी हम हँसी बाँटें / इसी विषय को ले कर एक कविता प्रस्तुत है , जो आज से १४ साल पहले हमारे बैंक के गृह पत्रिका में छपी थी - शीर्षक है "आत्म संतोष"

पूछा एक दिन, किसीने, गुलाब के एक खिलते हुए फूलसे ,
काँटों से घिर कर भी, बता मुस्कराता है तू , किस तरह ? 
हल्की सी मुस्कान ला कर , होंठों पे अपने, 
कहा गुलाब ने, छूपा के दिल में ग़म बे-हिसाब /
ज़िन्दगी तो बितानी है ऐ दोस्त , किसी भी तरह ,
न फिर क्यों गुजारें इसे, खुशियों के काफिले के साथ ?
यह सच है कि काँटों में ही बीत जाती है ज़िन्दगी मेरी ,
कड़कती धूप में झुलस जाती है कोमल काया यह मेरी /
सूनी रात के साये में जब , जग में सारे सो जाते हैं
ओस के सर्द कतरे , मेरे जिस्म को झिंझोड़ जाते हैं /
बड़ी ही कम उम्र है ज़िन्दगी, इस बात को मैं जानता हूँ
इसी अहसास से ही, ग़म बिसरा कर मैं मुस्कराता हूँ/
ग़म सुनाके अपने ,भला औरों को मैं दुखी क्यों करूँ?
पराई आग में जलाने का पाप भला मैं क्यों करूँ ?
मुझसा ग़म न पाए कोई बस यही दुआ मैं रब से करता हूँ
हंसके गुजरता हूँ दिन अपने, औरों को भी मैं खुश करता हूँ

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