Sunday, January 8, 2012

इस देश में अक्सर देखा गया है के जब भी कोई जघन्य अपराध के दोषी को मृत्युदंड सुनाया जाता है तो "मानव अधिकार" की ध्वजा उठा कर घूमनेवाले उसी अपराधी की जान बचाने के लिए आवाज़ उठाते हैं , जो निश्चित रूप से ग़लत और निंदनीय प्रयास है/ इसी सन्दर्भ में एक घटना मुझे याद आती है , अपने इसी ओडिशा राज्य के कोरापुट जिले में कई साल पहले एक घटना घटी थी / एक मित्र ने, जो बेकारी और भूखमरी से तंग आ चुका था अपने एक घनिष्ठ मित्र के यहाँ पनाह ली./ दूसरे मित्र ने उसे आश्वासन दिया के वह उसे कहीं न कहीं रोजगार दिला देगा और उसे बड़े प्यार से अपने यहाँ रखा / परन्तु इस आदमी के नीयत में खोट आ गयी और एक दिन रात को सोते हुए मित्र,उसकी पत्नी और उसके दोनों बच्चों का गला रेत कर घर का सारा कीमती सामान ले कर भाग गया/ बाद में वह पकड़ा गया और उसे फांसी के सजा सुनायी गयी / तब आगे आ गए मानव अधिकार के बातें करनेवाले./ जिस मित्र ने मानवीयता दिखाई मित्र के मदद करके क्या उसका कोई अधिकार नहीं था ? इसी घटना पर मैंने एक छोटी सी कविता तब लिखी थी, जो आज आप सब के लिए यहाँ डाल रहा हूँ

पेट के आग बुझाने को,करते हुए चोरी रोटी की
आदमी एक जब पकड़ा गया /
दार्शनिक जैसे अंदाज़ में , तब
हवलदार ने उसे कुछ ऐसा कहा /
अजीब बेवकूफ हो मेरे भाई, भूख के मारे जो चोरी की
करना ही था अगर कुछ कोई बड़ा कारनामा कर देते
अपने किसी मित्र के सारे परिवार का गला काट देते
उसकी जमा पूंजी लेकर वहां से तुम चम्पत हो जाते
और जीवन के चन्द रोज़ आराम से गुजार तो देते
और मान लो कहीं अगर दुर्भाग्य से पकडे भी जाते,
तो ठेंगे से ------
"मानव अधिकार" का घिसापिटा जंगलगे नाम से
राजक्षमा तो ज़रूर पा ही जाते ---------------

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