Monday, July 14, 2014

एक और पीड़ादायक लघु कथा

चारों तरफ लहलहता खेत - फसलों की भरमार- सुखी और संपन्न ग्रामवासी - ऐसा एक गाँव खोजना नहीं पड़ता था पहले - हर गाँव ऐसा हुआ करता था पहले
सरकार को फसल से अधिक लुभाया गाँव के लोगों का वोट - बैंकों की शाखाएँ खुलने लगी धड़ाधड़ गाँव में - जिनके पास पैसे थे उनसे जमा लिए और लोगों को लोन देना शुरू किया - सरकारी लोग और असाधु बैंक के कार्मिकों ने बहकाना शुरू किया लोगों को लोन वापस न करने को- क़र्ज़ माफी होने लगी - लोग आलसी होने लगे - जिन्होने बैंक में जमा किए थे अपनी क़िस्मत पे रोने लगे जमा पर व्याज कम होता देख कर
गाँव से शहर की तरफ भागने लगे लोग रोज़गार की तलाश में - बैंक का लोन डकार कर जो पड़े रहे गाँव में अब किसी काम के न रहे - जिन गाँव में कभी हरियाली हुआ करती थी आज वहाँ बंजर खेत. और बदहाली
नतीजा - आलासियों की बढ़त - पैदावार कम - फसल और सब्ज़ियों के कीमत आसमान पर - यही है देन बैंकों के राष्ट्रीयकरण का - और 5 साल बाद जिसकी मनेगी स्वर्ण जयंती - धन्य हैं देश के लूटेरे नेता - बैंक कर्मचारी और दलाल

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