Sunday, July 28, 2013

hai preet ka jahan akaal pada



मित्रों आपको याद होगा एक फिल्म आई थी मनोज कुमार की "पूरब और पश्चिम" इस फिल्म के मध्यम से उन्होने "जाई जगदीश हरे" आरती को जन जन तक पहुँचाया था और एक बहुत ही सुंदर गीत " है प्रीत जहाँ की रीत" के माध्यम से भारतीय संस्कृति का गौरव का बखान किया था. खेद है कि धर्म द्रोही प्रशासन के कारण आज देश की संस्कृति दुर्दशा ग्रस्त होने के मार्ग पर है अपनी ही भूमि में. उस पीड़ा को मैनें व्यक्त किया है इस कविता में - ध्यान चाहूँगा आपका 

है प्रीत का जहाँ अकाल पड़ा 
उस भूमि की बात मैं सोचता हूँ 
यह अनहोनी हो गयी कैसे 
यही सोच के मैं घबराता हूँ------
वह दिन भी कितने प्यारे थे
जब मिल कर सारे रहते थे
दादा- दादी और नाना- नानी
बच्चों को कहानी सुनाते थे
वह दिन अब सब ख्वाब हुए
जब स्वार्थ में हम सब डूब गये
मैं दिल ही दिल में रोता हूँ
यह अनहोनी हो गयी कैसे
यही सोच के मैं घबराता हूँ------
माँ-बाप को हम प्रभु मानते थे
उनकी बातों को गीता के वचन
सब परंपरा जब खाक हुई
बचपन से तो सब पालें टेंशन
आदर सम्मान और स्नेह प्यार
कम देख आज मैं पाता हूँ
यह अनहोनी हो गयी कैसे
यही सोच के मैं घबराता हूँ------
औरों के दुख गम में कभी
लोगों का कलेजा फटता था
जिसकी हैसियत हो जितनी
लोगों के काम वह आता था
वह बाग उजड़ गया प्यार का अब
फूलों को खार में पाता हूँ
यह अनहोनी हो गयी कैसे
यही सोच के मैं घबराता हूँ------
कण कण में देखते थे भगवन
भावुक हृदय हुआ करता था
जिससे जो भी उपकार मिला
वह पूजनीय हुआ करता था
अब के युग में भगवान है धन
इंसान खोजता रहता हूँ
यह अनहोनी हो गयी कैसे
यही सोच के मैं घबराता हूँ------
आओ रे क़सम खाएँ हम सब
हम बदल डालेंगे यह हालत
मतलब को रखेंगे दूर रे सब
हर दिल में जगाएँगे उलफत
लौटेंगे फिर से वह प्यारे दिन
यह सोच के खुश हो लेता हूँ
यह अनहोनी हो गयी कैसे
यही सोच के मैं घबराता हूँ------

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