एक ज़माना वह था, जब किसी भी व्यक्ति का परिचय उसका व्यक्तित्व, उसके सदगुण और उसके कर्म हुआ करते थे / पर अब चाहे व्यक्तित्व कितना ही दागदार हो, उसके अन्दर सारे के सारे अवगुण ही भरे पड़े हो , जीवन में उसने एक भी सत्कर्म न किया हो , अगर कोई व्यक्ति एक ऊंची कुर्सी पर बैठा हो तो वह कहता है "दाग अच्छे हैं" / देश में जिस तरह घटिया चरित्र के नेता शीर्ष में बैठ कर सत्ता सुख भोग रहे हैं , जिस प्रकार कानून बनानेवाले कानून तोड़ रहे हैं, उससे तो यही सच लगता है / तो क्यों न आज उसी कुर्सी पर एक कविता हो जाए ?
कुर्सी यह बुरी बला है जो इंसानियत भुला दे
धन तो दे काला ही, मनको भी कर काला दे //
जानदार इंसान को न पूछे,
खातिर कुर्सी बेजान की /
पूछ न यहाँ शरीफ की है,
पूंछ है लम्बी बेईमान की /
अजब करिश्मा कुर्सी का, शैतान की जो खाला है
धन तो दे काला ही, मनको भी कर काला दे //
निकम्मों को भी कर दे काबिल,
कुर्सी की ऐसी है महिमा/
कुर्सी हो गयी इतनी बड़ी अब,
बढ़ा देता निठल्ले के गरिमा /
ऐसे खेल दिखाए कुर्सी , अक्ल पे लगा ताला है
धन तो दे काला ही, मनको भी कर काला दे //
मत भूलो तुम कुर्सी वालों,
लकड़ी की बनती कुर्सी है/
आख़री मंजिल जो होती चिता,
वह भी तो लकड़ी की होती है /
गर्व तो एक दिन होगा चूर,यही तो होनेवाला है
न कुर्सी न होगा पद, होगी बस आहों के माला है .//