Wednesday, March 14, 2012

क्या हम वास्तव में जागरूक हैं (लघु कथा)
घर में तीनों भाइयों में सबसे बड़ा था वह. / अच्छा खासा पढ़ा लिखा था , विश्व विद्यालय की सबसे ऊंचे डिग्री हासिल की थी / पर तकदीर खोटी थी / आज भी वह बेकार था / सरकारी नौकरी उसे मिल नहीं रही थी क्यों कि न तो वह आरक्षित वर्ग से था, न ही उसके पास सिफारिश थी / नौकरी पाने के लिए मोटी रक़म घूस देने की भे यूस्की औकात नहीं थी / छोटामोटा कोई धंधा शुरू करने के लिए बैंकों की भी खाक छानी , पर वहाँ भी काम नहीं बना / मतलब आम बोलचाल में बेकार निठल्ला, किसी भी काम का नहीं था वह.
थक हार कर घर लौटा शाम को/ माँ से कहा , माँ बड़ी भूख लगी है कुछ है क्या खाने के लिए ? / बापने कहा, हाँ हाँ क्यों नहीं साहब आये हैं दिन भर मेहनत करके , पैसा कामके लाये हैं जो , खिलाओ भाई अपने लाडले को / माँ ने टोकते हुए कहा, बस भी करो, दो रोटी तो खाने दो बेचारे को / बापने भड़क कर कहा , हाँ हाँ खिलाती रहो , जीवन भर मूंग दलने के लिए जो पैदा हुआ है हमारी छाती पर / अरे इससे तो बेहतर हमारे बाकी के दोनों लड़के हैं / एक ने पढ़ाई आधे में छोड़ कर बैंक से लोन लिया जैसे तैसे / वापस किया नहीं , क़र्ज़ माफी और फिर से लोन / यह टी वी , फ्रिज, ऐ सी सब उसी पैसे का ही तो है / और सबसे छोटा, तुम उससे कोसती थी न कि आतंकवादी बन गया / अब देखो आत्मसमर्पण करके ढेरों माल कमाया जिससे घर की मरम्मत तो हो गयी और उसकी शादी भी / पढ़ लिखकर क्या निहाल कर दिया इसने हमें /
मित्रों यही है वास्तविकता आज इस देश की ? सोचिये हम कहाँ जा रहे हैं ? 
लूटा है जिन्होंने मुल्क को , बैठे हैं तोंद कर मोटी 
हम तरसते हैं लंगोटी को, पर वह उड़ाते हैं बोटी //
खून ही पी पी के हमारा , बन बैठे हैं वह हुक्मरान 
उनकी शान बड़ी न्यारी, हम खो बैठे हैं पहचान //
कैसी जनता कैसे नेता, समझ नहीं कुछ आता है
यूँ लगता है जैसे यह देश सीधे नरक में जाता है //
 
अकड़ बड़ी थी गर्दन में, और नज़र थी आसमान पर 
लगी ज़रा सी ठोकर गिरे चारोंखाने वह चित्त हो कर //
चलते हो इसी ज़मीन पर, ज़मीन पे ही यार रखो नज़र 
जीने का सलीका सीखो , अपनों से न रहो तुम बेखबर // 
कहते हुए सुना है हर किसीको ,कांपता है धरती का सीना अब ,पाप जो इतना बढ़ गया ऐ रब //
अपनी करनी जो है पाप या फिर पूण्य, बताना ज़रा कभी भी इस बात पर सोचा है हमने कब //
जो वक़्त अनमोल गंवाते हैं हम सब यारों, यहाँ लगते हुए अपने ही लोगों पर अक्सर तोहमत /
खुद के गरेवान में झाँक कर अगर सुधर जाते हम, क्या न बदलती इस ज़माने की किस्मत // 
 ज़रा ग़ौर करो
कौन है भिखारी (एक लघु कथा)

शहर की बढ़ती हुयी आबादी   को देखते हुए  सरकार ने राजमार्ग को   शहर के दोनों छोर से मिलाने  के लिए , बाई पास  बनवा दिया / वहीं एक मंदिर भी बन चुका था  और एक डिग्री कालेज  भी स्थापित हो चुकी थी /  मंदिर के बाहर एक बुढा अपाहिज भिखारी  बैठा लोगों से  दया की भीख मांग रहा था  / कोई एक आध सिक्का उछल देता था उसकी तरफ तो कोई प्रसाद में लगाये गए केले या संतरे का  एक हिस्सा दे देता था / कुछ  ऐसे भी थे  जो उसे हिकारत की नज़र से देख रहे थे, मानो वह इस धरती पर बोझ बनके जी रहा है /
अचानक एक जोर की आवाज़ से इलाका गूँज उठा / सभी ने देखा कि तेज़ी से जा रहा एक ट्रक पेड़ से टकराकर उलट चुका है / पास जा के देखा तो  ट्रक का खलासी  गाडी के नीचे  दब कर दम तोड़ चुका है  और ड्राइवर  ज़ख़्मी हालत में छटपटा रहा है / एकी बुजुर्ग ने कहा अरे इसे अस्पताल ले चलो कोई /
तभी एक आवाज़ आयी  , अरे भाइयों आओ आओ, यह ट्रक तो  साबुन और चाय की पेटी से भरा पड़ा है /  सभी भागे भागे गए / जिससे जितना बन पड़ा माल समेटने लगा /  कोई उन्हें रोकनेवाला   जो न था /  पुलिस के आने से पहले  हर कोई चाहता था कि अधिक से अधिक माल अपने कब्ज़े में कर ले / भगवन की पूजा करने आये धार्मिक लोग भी उस भेद में शामिल हो गए  और कालेज के विद्यार्थी भी अपने क्लास छोड़ कर भाग आये  मौके का फायदा उठाने / किसी को इतनी फुर्सत न थी कि   तड़प रहे ड्राइवर को दो घूँट पानी का पीला  दें /
दूर बैठा "धरती का बोझ" वह भिखारी सोच  रहा था , कि जिनसे वह दया की भीख मांग रहा था  वह भिखारी हैं या लूटेरे ? पर उसके पास कोई  जवाब नहीं था / आपके पास है क्या ?